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नारनौलिय अग्रवाल समाज का अलिखित इतिहास *** !
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कुछ इतिहास लिखित होता है
और कुछ अलिखित जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से सुन सुनकर एक इतिहास बन जाता है ।
मेरे पास अपने समाज का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो नहीं है


पर बचपन से अपने बहुत से बुजुर्गों से
सुनते आया हूं उसका वर्णन जो मुझे ज्ञात है भेज रहा हूं ।
हो सकता है इसमें कुछ जानकारी त्रुटिपूर्ण हो पर मुझे लगता है यही जानकारी सही हो सकता है ।

बादशाह अकबर का सेनापति
राजा मानसिंह थे , उनकी बुआ जोधाबाई का विवाह अकबर से होने के कारण वे उनके रिश्तेदार थे । मानसिंह का प्रभाव अकबर पर बहुत अधिक था क्योंकि उसने अकबर के लिए बहुत से युद्ध जीते ।

जैसा कि जनश्रुति अनुसार लगभग १५८८ ई० के आसपास मानसिंह बंगाल विजय के लिए निकला और बंगाल के नवाब पर विजय प्राप्त लौट रहा था ।वापसी में जब वह गया क्षेत्र से गुजर रहा था तब उसके मन में एक भावना जगी कि
गया जीमें अपने पितरों का पिण्डदान और श्राद्ध करके वापस लौटुं ।पर जैसा कि कहा जाता है गया के पंडा उसे विधर्मी कहकर उसका पुरोहित बनना स्वीकार नहीं किए ।

एक तो वह अकबर का सेनापति था दूसरा अभी बंगाल विजय करके लौट रहा था । उसके मन में राज मद था हीं ।उसके मन में यह विचार आई कि मैं अपने क्षेत्र से यहां ब्राम्हण लाउंगा और यहां एक नगर बसाउंगा । अतः उसने गया फल्गु नदी के उस पार का क्षेत्र या तो कब्जे में लिया या वह क्षेत्र उसने खरीदा । और उस क्षेत्र का नामकरण उसने अपने नाम पर मानपुर रखा ।

वापस लौटने के बाद उसने ब्राम्हणों का एक जत्था एवं वहां नगर बसाने के लिए कुछ नागरिकों का परिवार भेजने की तैयारी कर ली ।
वहां व्यापार के लिए व्यापारियों की भी जरुरत पड़ेगी इसके लिए उसने अकबर के मंत्री राजा टोडरमल से व्यापारियों का एक समूह तैयार करने के लिए कहा ।

राजा टोडरमल ने नारनौल के पास निचौंध गांव ( समय के प्रवाह में वह गांव विलुप्त हो गया है ) से
अग्रवंशी परिवारों का एक जत्था उनके
साथ भेजा ‌।( यहां पर एक ध्यान देने की बात है कि वे अग्रवाल परिवार स्वत: मानपुर नहीं आए बल्कि जबरन भेजे गए , जैसे कभी अंग्रेज़ों के द्वारा भारतीयों को गुलाम बनाकर मारिशस , फिजी या अन्य टापुओं पर भेजा गया )

वे हीं अग्रवाल परिवार जो मानसिंह के द्वारा लाए गए हमारे पूर्वज थे । वे सभी बस तीन बात अपने यादों में बसाए रखे निचौन्ध , नारनौल और अपने अपने गोत्र और उन्हीं यादों के सहारे उनका जीवन आगे बढ़ा ।
मानसिंह तो इन लोगों को बसाकर खुद लौट गया पर वे सभी जो वहां से जबरन लाए गए थे एक अनजान क्षेत्र में अकेले पड़ गए और ऐसी भी बात नहीं थी कि गया के लोग इनके स्वागत में फूल बिछाए हुए थे बल्कि उन्हें तो लग रहा था कि मानसिंह उनके छाती पर मुंग दलकर चला गया ।

किसी भी समाज या जाति की पहचान उसकी भाषा एवं भूषा से होती है । बिहार में उनकी पहचान अलग दिखती थी अतः उन्हें अपनी भाषा एवं भूषा बिहार के निवासियों जैसा अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ा ।

समय के अंतराल के बाद आजिविका के लिए उन्हें गया के हीं इस पास गुराड़ू , गुरूआ , देव , देवकुली ,भरौंधा , अमारूत , रानीगंज चक , सिलदाहा , पटना आदि क्षेत्र गंगा के इस पार हीं बढ़ना पड़ा । उसके बाद थोड़ा और विस्तार हुआ तो डाल्टनगंज , रांची ,रामगढ़ ,गोला , लारी , टाटा ,बोकारो आदि आदि अन।यह क्षेत्रो में आगे बढ़े । अपने समाज का अलिखित इतिहास यही है ।

मैं जहां तक समझता हूं अपने समाज का इतिहास जिनके पास भी होगा वह दो ढाई सौ बर्ष से आगे का नहीं होगा जबकि अपने पूर्वजों को बिहार आए ४३२ चार सौ बत्तीस बर्ष हो रहे हैं ।

समाज के अन्य परिवारों के पास भी सामाजिक इतिहास होगा हीं ,
अन्य जगहों से आए हुए इतिहास का निचोड़ निकालकर एक प्रामाणिक इतिहास बनाया जा सकता है जो भविष्य में अपने समाज का एक अमूल्य धरोहर रहेगा ।

निवेदन — हो सकता है इस विषय पर अन्य महानुभावों का अन्य मत हो वह मत भी स्वागत योग्य हो तब
हीं एक नया सुन्दर इतिहास बन पाएगा
।।

नमस्कार
स्नेहलता अग्रवाल

( हो सकता है मेरे इस लेख में अनेक त्रुटियां भी हो , इसके लिए मैं प्रबुद्ध जनों से क्षमा प्रार्थी हूं )

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रंजन अग्रवाल जीके परिवार की ओर से अग्रवाल समाज के सर्वांगीण विकास हेतु  सप्रेम भेंट किया गया है।
समाज के अन्य लोग जिनका हमें सहयोग और योगदान मिला है।

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